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प्र के॒तुना॑ बृह॒ता या॑त्य॒ग्निरा रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति । दि॒वश्चि॒दन्ताँ॑ उप॒माँ उदा॑नळ॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षो व॑वर्ध ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra ketunā bṛhatā yāty agnir ā rodasī vṛṣabho roravīti | divaś cid antām̐ upamām̐ ud ānaḻ apām upasthe mahiṣo vavardha ||

पद पाठ

प्र । के॒तुना॑ । बृ॒ह॒ता । या॒ति॒ । अ॒ग्निः । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भः । रो॒र॒वी॒ति॒ । दि॒वः । चि॒त् । अन्ता॑न् । उ॒प॒ऽमान् । उत् । आ॒न॒ट् । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । म॒हि॒षः । व॒व॒र्ध॒ ॥ १०.८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:8» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में तीनों लोकों में वर्तमान अग्नितत्त्व का वर्णन किया जाता है और इन्द्र शब्द से परमात्मा उपासनीय वर्णित किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) महान् अग्नि (बृहता केतुना) महान् ज्ञापक प्रकाश से (रोदसी) घावापृथिवीमय जगत् के प्रति (प्रयाति) प्राप्त हो रहा है। विभाग से कहते हैं−(वृषभः-रोरवीति) पृथिवी पर अग्निरूप से जलता हुआ वायुयोग से वृषभसमान शब्द करता है (दिवः-अन्तान्-उपमान्-चित्) द्युलोक के प्रान्तभागों को भी तथा उपाश्रित पिण्डों को भी (उदानट्) ऊपर होता हुआ सूर्यरूप से व्याप्त होता है (अपाम्-उपस्थे) जलों के ऊपर स्थान-अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से (महिषः-ववर्ध) महान् त्रिविध अग्नि वृद्धि को प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - महान् अग्नि द्यावापृथिवीमय जगत् में प्राप्त है, पृथिवी पर अग्निरूप में जलता हुआ-शब्द करता हुआ, द्युलोक में समस्त पिण्डों प्रान्तभागों को प्रकाश देता हुआ सूर्यरूप में, अन्तरिक्ष में मेघस्थ हुआ विद्युद्रूप में मिलता है। ऐसे ही विद्वान् या राजा की बल-ज्ञान-गुणख्याति विद्वन्मण्डल एवं साधारण जनों में हो जाया करती है ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्तेऽग्निशब्देन लोकत्रये वर्तमानस्याग्नितत्त्वस्य वर्णनं क्रियते। इन्द्रशब्देन च परमात्मोपास्यत्वेन वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) महान्-अग्निः (बृहता केतुना) महता ज्ञापकेन प्रकाशेन (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ-द्यावापृथिवीमयं जगत् प्रति (प्र याति) प्रगच्छति-प्राप्नोति, तत्र विभाग उच्यते (वृषभः-रोरवीति) पृथिव्यामग्निरूपेण प्रज्वलन् सन् वृषभ इव भृशं शब्दयति वायुमिश्रितः (दिवः-अन्तान्-उपमान्-चित्) द्युलोके सूर्यरूपेण द्युलोकस्य प्रान्तभागानुपाश्रितान् पिण्डरूपान् खल्वपि (उदानट्) उपरि सन् व्याप्नोति (अपाम्-उपस्थे) अन्तरिक्षस्य “आपोऽन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] मध्ये यद्वा-अपां जलानामुपरिस्थाने-अन्तरिक्षे विद्युद्रूपेण (महिषः-ववर्ध) एवं महान् सन् वृद्धिमाप्तोऽस्ति ॥१॥